नारी का बदलता स्वरूप 

नारी लक्ष्मी का स्वरूप है। वह प्रेम, दया, संवेदना और ममता का प्रतिरूप है, किंतु आज के युग में ऐसे रूप की कल्पना नहीं की जा सकती। आज नसीबवाले ही ऐसे रूप के दर्शन कर पाते हैं। ऐसे  युग और ऐसे समय की हमने कल्पना भी नहीं की थी। नारी का यह बदलता स्वरूप विनाशकारी है। 
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नारी का बदलता स्वरूप
आज धन आवश्यकता है, लेकिन धन के लिए किया जानेवाला कुकर्म पाप है
 

धैर्य की प्रतिमूर्ति नारी, पूजनीय है, नारी माँ है, बहन है, बेटी है, दोस्त है, प्रेमिका है। इसके आगे का स्वरूप अशोभनीय , अशोचनीय है और अकल्पनीय है।  इस कलयुग में अविश्वसनीय भी नहीं है, क्योंकि यह कलियुग है। नारी लक्ष्मी का स्वरूप है। वह प्रेम, दया, संवेदना और ममता का प्रतिरूप है, किंतु आज के युग में ऐसे रूप की कल्पना नहीं की जा सकती। आज नसीबवाले ही ऐसे रूप के दर्शन कर पाते हैं। ऐसे  युग और ऐसे समय की हमने कल्पना भी नहीं की थी। नारी का यह बदलता स्वरूप विनाशकारी है। 

आज धन आवश्यकता है, लेकिन धन के लिए किया जानेवाला कुकर्म पाप है। आज नाम, यश और धन कमाने के लिए नारी अपनी मर्यादाओं को तख्त पर ऱख चुकी हैं। आज की नारी साम, दाम, दंड और भेद के हर पहलू को अपनाकर अपने जीवन को सकारात्मक रूप देने पर तुली हैं, परंतु यह नारी की मानसिक चेतना को विकृत रूप देने  में कोई कसर नहीं छोङेगा। तत्पश्चात, नारी मात्र एक वस्तु के अतिरिक्त कुछ नहीं रह जाएग, इसलिए अपने वास्तविक स्वरूप को बनाएं रखें। धन मात्र आवश्यकता है, धन सबकुछ नहीं है। जिनके लिए धन सबकुछ है, उनके लिए मान-मर्यादा अनौपचारिकता के अतिरिक्त  कुछ नहीं है। नारी लक्ष्मी रूप में ही पूजी जाती है। सरस्वती के रूप में ही इनकी अराधना की जाती है। पार्वती व दूर्गा के रूप में ही पूजनीय है। माँ, बेटी और बहन और पत्नी के रूप में ही सदा हृदय में विराजती है। यही स्त्री का वास्तविक रूप है। इसके अतिरिक्त प्रेमिका के रूप में भी सराहनीय है, क्योंकि वह प्रेमिका के रूप में ऱाधा का स्वरूप धारण करती हैं। यहाँ तक तो उचित है, इसके अतिरिक्त अन्य रूपों की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। आज के युग में जिस तरह के मामले सामने आ रहे हैं, इससे नारी जाति के स्वरूप को असामान्य मानसिक विकृति के रूप में ही देखा जा सकता है। यहाँ से उनकी कल्पनाओं पर सेंध लगने की संभावना अधिक होती है। ऐसी स्त्री मानसिक अंतर्द्वन्द्व, तनाव, कुंठा, का शिकार होती हैं। उनकी मानसिक विकृति उन्हें अपयश के गर्त में ढकेलने लगती है। उस वक्त उसका जीवन नर्क के समान हो जाता है। 

समय के साथ परिवर्तन आवश्यक है, क्योंकि यह प्रकृति का नियम है। इस परिवर्तन के साथ अपने मान, सम्मान, स्वाभिमान और मर्यादा को बनाएं रखने में ही समझदारी है। यही जीवन है। अपनी मान-मर्यादाओं के दायरे को उतना ही बढाएं जितनी आवश्यक हो, उससे अतिरिक्त विकसित करने का अर्थ है- स्त्री की मर्यादा को लांघकर घर, परिवार और समाज को अपमान और अपयश का ताज पहनाना। इस बात को आपका मन स्वयं ही स्वीकार नहीं करेगा, जब आप अपयश की इस दलदल में पूरी तरह समा चुके होंगे। इससे पहले के देर हो जाए, अपने मान-सम्मान व सिद्धांतों को एक सीमित दायरे में रखें, ताकि आपका जीवन अपयश की जहर से विनाश का कारण न बन जाएं। यह जीवन बहुत अमूल्य है। नाम, यश और धन की ललक सब में होती है, लेकिन इसके साथ-साथ मर्यादाएं भी होती हैं।  यही स्त्री जाति का श्रृंगार है।