जीवन एक संघर्ष- लघु कथा

इनमें भी आपसी प्रेम और सहवास की भावना पनपती है। ये भी अपने परिवार की रक्षा के लिए दुश्मनों से लड़ पड़ते हैं।

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जीवन एक संघर्ष- लघु कथा

बच्चों! इस कहानी के आधार पर यही ज्ञात होता है कि  हममें स्वयं की रक्षा करने की क्षमता होनी चाहिए। जीवन के मूल्यों को समझना और जीवन में आ रही परेशानियों और कष्टों से लड़ना हमें स्वयं आना चाहिए।

         

जीवन में संघर्ष का होना स्वाभाविक-सी बात है। जीवन जीने के लिए भी बहुत संघर्ष करना पड़ता है। इस बात को मैंने पंक्षियों से सीखा। कई बार आपने देखा होगा कि पक्षी हमेशा अपनी टोली में मस्त रहते हैं। इनमें भी आपसी प्रेम और सहवास की भावना पनपती है। ये भी अपने परिवार की रक्षा के लिए दुश्मनों से लड़ पड़ते हैं।

मैंने पक्षियों के बीच होनेवाले झगड़े, क्रोध और प्रेमभाव को करीब से महसूस किया है। मैं स्वयं के अनुभव प्रस्तुत कर रही हूँ- एक बार की बात है। एक कबूतर रह-रहकर बार-बार हमारी गैलरी में अंडा दे देती थी। उस अंडे को फैंकने में मुझे बड़ा मोह आता था। एकबार मादा कबूतर ने दो अंडे दिए थे। मादा कबूतर अंडों को सेव- सेव कर उनमें से दो बच्चे निकाले। मादा कबूतर के नन्हें-नन्हें बच्चों को देखकर मैं खुश हो गई। कुछ ही दिनों में बच्चों के छोटे-छोटे पंख भी आ गए। उन प्यारे से नन्हें कबूतरों के गूटर-गूँ की ध्वनि से घर का माहौल खुशनुमा होने लगा। मुझे बार-बार बच्चों को जाकर देखना बड़ा अच्छा लगता। एक दिन मैं सुबह-सुबह उठकर स्नान करके बाहर आई, तो मैंने बच्चों की आवाज़ सुनी। वे लगातार चिल्ला रहें थे। इसबार उनकी कातर ध्वनि में पीड़ा का भाव था। मैंने गैलरी में देखा कि बहुत सारे कबूतर हमारे गैलरी की जाली में बैठे उड़-उड़कर उन बच्चों की तरफ जा रहे थे। जब मैंने करीब जाकर देखा, तब मेरे होश उड़ गए। बाहर से आठ-दस कबूतरों ने उन बच्चों के सिर पर ठोंठ मार-मारकर उन्हें घायल कर दिया था। सिर से ख़़़ून बह रहे थे। दोनों बच्चे उनसे बचने के लिए कातर घ्वनि में चिल्ला रहे थे। उनकी माँ अपने बच्चों को बचाने के लिए फड़फड़ा रही थी। वह हृदय की यातना, दुख और क्रोध से लाल आँखें लिए गुँटूर-गुँटूर करती हुई अपने दुश्मनों पर टूट पड़ती। अपने पंखो को फैलाए बच्चों को पंखों में छिपाने की कोशीश करती। मानों वह उनकी सारी परेशानियों को पल भर में खत्म कर देगी। उसकी माँ की छटपटाहट, गुँटूर-गूँ की धीमी ध्वनि सुनकर मेरा मन व्याकुल हो गया। बच्चों को दुष्ट कबूतरों से बचाने के लिए मैंने भी कोशीश की। मैं कभी-कभार डंडा घुमा दिया करती थी और थोड़ी देर खिड़की के पास बैठ जाती। मैं जैसे ही वहाँ से हटती फिर वही दर्द भरी कातर ध्वनि और उनकी छटपटाहट मेरे कानों में गूँज उठती, जो मेरे हृदय को भेद जाती। शाम के सात बजे के बाद दोंनो कबूतर के बच्चे डरे सहमे बैठे थे।  बच्चों और मादा कबूतर को मैंने थोड़े-से दाने दिए । उनको शांत देखकर मुझे थोडी-सी राहत मिली। सवेरे-सवेरे पुनः वही कातर ध्वनि मेरे कानों में गूँज उठी। यह लगभग छः बजे की बात है। वही कबूतरों का जमघट, नन्हें बच्चों की   सुरक्षा के लिए मादा कबूतर की छटपटाहट। माँ और बच्चों के बीच की वही कातर ध्वनि। यह सब देखकर मेरे मन की व्याकुलता और बढ़ गई। उन्होंने नन्हें-नन्हें बच्चों के भेजे को बूरी तरह नोच डाला था। उनके भेजे के गूदे दिखने लगे थे। मैं हर रोज की दिनचर्या पूरी करने के बाद सब्जी रखने की जालीवाली टोकरी से बच्चों को ढ़क दी, ताकि कोई भी कबूतर उन तक नहीं पहुँच पाए। इतना करने के बावजूद, उन कबूतरों ने उनको नहीं छोड़ा। उन्होंने टोकरी हटाकर उनपर हमला करना शुरु करन दिया । उसके बाद मैंने टोकरी के ऊपर ईंट रख दी। जब तक ईंट थी, वे कुछ नही कर पाए। मैंने सात बजे शाम को ईंट हटा दी, ताकि वे खुली हवा में साँस ले सकें। अब की बार जो मैंने देखा वह भयावह और दर्दनाक था। उन्होंने बच्चेां के भेजे को खा डाला था। वो दर्द से कराह रहे थे, लेकिन शरीर में अब भी जान बाकी थी। इस बार मैंने जो जाली डाली, फिर निकाली ही नहीं।   

उसके अगले दिन बिलकुल शांति थी न कोई कबूतर था और न कोई शोर, केवल उसकी माँ की कातर ध्वनि गूँज रही थी। मुझे लगा, वह अपने बच्चे को जाली से निकालने के लिए फड़फड़ा रही है। मैंने जब टोकरी उठाई तो एकदम स्तब्ध रह गई। मन रुआसाँ-सा हो गया। मैं उस बच्चे को बचा नहीं पाई। दूसरा बच्चा भी लगभग बूरी तरह घायल था। मैंने उसको जाली में डाल दिया। दुर्भाग्यवश, शाम होते-होते उसके भी प्राण पखेरु उड़ गए। उसे भी अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा। मैं अपने आप में स्वयं को ही दोषी मान बैठी। मुझे लगा टोकरी रखी होने के कारण उसकी माँ दाना नहीं चुगा पाई होगी। शायद यह भी हो सकता है कि डर, भय, शारीरिक यातना और पीड़ा से भी उसके जीवन का अंत हो गया। कारण क्या था, यह मैं नहीं जानती, परंतु इतना जानती हूँ कि इन्हें शारीरिक प्रताड़ना इतनी दी जा चुकी थी कि मृत्यु होना स्वाभविक-सी बात थी। उस दिन के बाद मैंने उसी मादा कबूतर को एक दो कबूतरों से लड़ते देखा। वे पुनः उसे प्रेम जाल में फँसाने की कोशीश कर रहे थे। वह मादा कबूतर फड़फड़ाती हुई इधर से उधर भाग रही थी। काफी दिनों के बाद मैंने देखा कि उसी मादा कबूतर ने फिर से दो अंडे दिए। मैं समझ गई ये फिर से किसी न किसी कबूतर के झांसे में आ गई। उसनें फिर अंडों को सेव-सेवकर दो बच्चे निकाले।

मेरे घर में उन बच्चों की मघुर ध्वनि से पूरा वातावरण खुशनुमा हो गया। बच्चे थोड़े-थोड़े बड़े ही हुए थे कि फिर से वैसी ही दर्द भरी आवाज़ मेरे कानों में गूँज उठी। मेरा दिल फिर से दहल गया, लेकिन इसबार मामला कुछ और ही था। पहले कुछ दिनों तक मादा कबूतर अपने बच्चों के जीवन के लिए लड़ती रही। उसके तत्पश्चात, जब बच्चों को दाने चुगाने के लिए निकल जाती थी, तब बच्चे अपने जीवन की रक्षा के लिए स्वयं लड़ जाते। मैं उन बच्चों के संघर्ष को देखती रहती। मुझे उन बच्चों पर बड़ी माया आती। उनका जोश, उनका उत्साह और उनका संघर्ष उनके जीवन को बचाने में सहायक बनें। इन बच्चों ने जीवन जीने का तरीका सीख लिया था। वे अब बड़े हो गए थे।

बच्चों! इस कहानी के आधार पर यही ज्ञात होता है कि  हममें स्वयं की रक्षा करने की क्षमता होनी चाहिए। जीवन के मूल्यों को समझना और जीवन में आ रही परेशानियों और कष्टों से लड़ना हमें स्वयं आना चाहिए।