कला, सेक्स और नशे का बदलता स्वरूप
एक वक्त था जब लोगों में कला के प्रति अटूट प्रेम था। कला का अर्थ है – नाट्य अर्थात हुनरवाला व्यक्ति जिनमें भावभंगिमाओं को व्यक्त करने की विभिन्न प्रकार की कला का अद्भुत ज्ञान होता है। दादा साहेब फलके, जिन्होंने कला को उभारने के लिए आम व्यक्ति को एक मंच दिया। उनके दिए गए इस मंच में कई प्रतिभाएं उभरकर सामने आई। इसीलिए दादासाहेब फालके को इस फिल्म उद्योग का पितामह और जनक कहा जाता है। दादासाहेब फालके के इस फिल्मउद्योग को कला के नाम पर अय्याशी का केंद्र बना दिया गया है। कला के नाम पर ड्रग्स का काला धंधा चल रहा है। इसमें अधिकतर यंग जनरेशन के नेता अभिनेता शामिल हैं। इनमें नशे की शिकार ज्यादातर नयी अभिनेत्रियां होती हैं, जों मध्यम क्लास से संबंध रखती हैं। अगर कोई नवयुवक मध्यम वर्ग से आता है, तो वह नेपोटीज्म का शिकार हो जाता है और उस गुणी अभिनेताओं का केरियर लगभग समाप्त हो जाता है।
एक वक्त था जब लोग अपना भविष्य आजमाने के लिए सपना संजोए इस फिल्मी दुनियां में आते थे। कई बङे अभिनेताओं का केरियर भी इसी फिल्म उद्योग में बना है जैसे- स्वरगीय राजेश खन्ना जी, विनोद मेहरा जी, धरमेंद्र पाजी इत्यादि। सबके सब बाहर से ही आए हैं, उस वक्त नेपोटीज्म जैसे शब्दों को कोई भी नहीं जानता था।
वक्त के बदलते परिवेश के साथ इन शब्दों का अर्थ भी बदल गया। कला के नाम पर हो रहे इस धोखेबाजी का अंत होना आवश्यक है। ड्रग्स जैसे काले धंधे को समाप्त करना भी जरूरी है वरना आनेवाले समय में इस फिल्म उद्योग का स्वरूप ही बदल जाएगा, क्योंकि कला के नाम पर सेक्स और ड्रग्स का काला धंधा चल रहा है।