दुनिया लड़ती रही, भारत ने महान साबुन बना लिया।

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Mysore Sandal Soap
ये कहानी प्रथम विश्वयुद्ध की है जब सारी दुनिया लड़ रही थी सारे राष्ट्र अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए एक दूसरे पर अधिकार ज़माने के उद्देश्य से लड़ते रहते थे। प्रथम विश्वयुद्ध ऐसी ही महत्वकांक्षाओं की देन रहा। 1914  में शुरू हुआ लड़ाइयों यह सिलसिला 1918  तक चला और ऐसे में सामान्य जनजीवन का प्रभावित होना लाज़मी था, हुआ भी। सबसे अधिक प्रभावित हुआ राष्ट्रों के मध्य होने वाला व्यापार। तब भारत में अलग-अलग रियासतें हुआ करती थी और हर रियासत अपने उपलब्ध संसाधनों से उपजे व्यापार पर निर्भर हुआ करती थी। ऐसी ही एक रियासत थी दक्कन की मैसूर रियासत वर्ष 1916 में यहाँ के राजा थे कृष्ण वाडियार चतुर्थ, और मैसूर रियासत प्रसिद्ध थी अपने उच्च कोटि के चन्दन के लिए चन्दन अंग्रेजी में  "सैंडलवुड"। विदेशों तक मैसूर का चन्दन अपनी सुंगंध के लिए मशहूर आज भी है तब भी था और इसके व्यापार से मैसूर राज्य को प्रचुर मात्रा में धन प्राप्त होता था। 1916 आते-आते प्रथम विश्वयुद्ध के चलते चन्दन का व्यापार थम गया और राज्य के गोदामों में इतना चन्दन जमा हो गया कि इसे कहाँ खपाया जाए ये मुश्किल राज्य प्रबंधन के सामने खड़ी हो गई।  ऐसे में राजा ने दीवान मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया कि सलाह पर चंदन से तेल निकालने वाली मशीनों का आयात किया और तेल निकालने का काम एक कारखाना बनाकर शुरू किया। 
                                                अब चन्दन का तेल तो निकला जाने लगा लेकिन राज्य प्रबंधन इसका उपयोग कहाँ किया जाएगा या निर्यात कहाँ होगा इस संदर्भ में स्पष्ट नीति बना पाने में असमर्थ रहा। फिर महल के कुछ कर्मचारियों ने इस तेल कि सुगंध से प्रभावित होकर इसे राजा के नहाने के लिए उपयोग करना शुरू किया। अब राजा एवं राज परिवार के स्नान के लिए इस तेल का उपयोग होने लगा।  धीरे-धीरे इस तेल से साबुन बनाया जाने लगा और राज परिवार और राज महल के कुछ कर्मचारी इस साबुन का उपयोग करने लगे। लेकिन चन्दन के जंगल और उनसे उत्पादित होने लड़कियां और फिर उनसे निकलने वाले  तेल कि मात्रा अभी भी इतनी अधिक थी कि उसकी खपत कहाँ की जाए इसका उत्तर अभी भी नहीं मिला था। तो राजा ने सोचा कि क्यों न जो साबुन हम इस्तेमाल कर रहे हैं इसे जनता के लिए भी बनाया जाए और ये विचार उन्होंने दीवान विश्वेश्वरैया के सामने रखा, ये ख्याल सभी को बहुत पसंद आया और इसके निर्यात और भविष्य में व्यापार की संभावनाओं को देखते हुए दीवान साहब ने बिना मिलावट के किफायती साबुन का बनाने का प्रस्ताव रखा। उस समय के औद्योगिक शहर बम्बई (अब मुंबई) से साबुन उद्योग के विशेषज्ञों को बुलाया गया। और ततपश्चात भारतीय विज्ञान संस्थान (आज का आईआईएससी) में उत्पादन और उत्पादन हेतु शोध के लिए व्यवस्था की गई। 
                                                                            साबुन के उत्पादन के लिए बाद में "साबुन शास्त्री" के नाम से मशहूर हुए औद्योगिक रसायनज्ञ सोसले गरलापुरी शास्त्री को राज्य के अधिकारी के रूप में साबुन बनाने की तकनीकी बारीकियों को समझने जानने के लिए इंग्लैंड भेजा गया और उनके वहां से लौटने के उपरान्त बंगलुरु में कारखाना शुरू किया गया। और वर्ष 1916 के अंत में "मैसूर सैंडल सोप" आम जनता तक पंहुचा। बाज़ार में आते ही मैसूर सैंडल सोप आम जन में लोकप्रिय हो गया और इसकी शाही पहचान के चलते इसे लोगों ने दूसरे शाही परिवारों ने भी हाथों-हाथ लिया। बाद में इस साबुन के अलावा इत्र का उत्पादन भी शुरू हुआ, साथ ही साबुन का व्यापार भी मैसूर से निकल कर बाहर फैलने लगा जो कि 1944 में शिवमोगा में लगाई चन्दन साबुन फैक्ट्री के रूप में परिलक्षित हुआ। साबुन के पैकिंग और डिजाइनिंग के लिए भी शास्त्री जी ने लोकप्रिय तरीका चुना और काफी शोध के उपरान्त यह तय किया कि साबुन का आकार गोल या चौकौर (जो कि उस समय प्रचलन में था) नहीं बल्कि अंडाकार होगा।  पैकिंग के लिए भी चौकौर डब्बों का उपयोग किया गया ताकि महिलाएं जो कि अपने गहने ऐसे डब्बों में रखती हैं वे उस डब्बे का उपयोग साबुन खत्म होने के बाद भी कर सकें। और इसी तरह की तरकीबें अपने गई जो कि मैसूर सैंडलवुड सोप के व्यापर के लिए लाभदायक साबित हुआ। साथ ही साबुन के ऊपर हाथी के सर और शेर के शरीर से बने एक काल्पनिक पौराणिक चरित्र जिसे मैसूर के लोग "शराबा" नाम से जानते हैं, का प्रयोग किया, साहस और बुद्धि के इस प्रतीक को राज्य कि समृद्ध विरासत के प्रतीक रूप में उपयोग किया गया। साथ ही साबुन पर "श्रीगंध तवरिनिडा" अर्थात "सीधा चन्दन के ग्रह-गृह से" मुद्रित करवाया गया। साबुन के मार्केटिंग प्रचार -प्रसार के लिए भी दिलचस्प तरीके अपनाये गए, कराची में इसके प्रचार के लिए जहाँ ऊँट पर सवारी निकली गई वहीं देश भर में बड़े-बड़े पोस्टर लगवाने के अलावा दीयासलाई की डिब्बियों तक पर साबुन के कवर कि फोटो छपवाई गई। 
                            आज़ादी के बाद 1980 के दशक में इसे कर्नाटक राज्य सरकार में कि कंपनी बना दिया गया और नाम बदल कर्नाटक सोप एंड डिटर्जेंट लिमिटेड (के एस डी एल) कर दिया गया। आज भी यह कंपनी उच्च गुणवत्ताऔर बिना मिलावट के सुद्ध चन्दन के साबुनो के लिए मशहूर है और विदेशो में इसके साबुन कि भारी मांग है। इसकी गुणवत्ता और प्रसिद्धि को आप ऐसे समझें कि कन्नड़ फील इंडस्ट्री भी खुद को "सैंडलवुड" नाम से पुकारा जाना पसंद करती है। इस साबुन पर चंदन कि खेती से जुड़े किसानों की जहाँ जीविका जुडी हुई है वहीँ कर्नाटक राज्य और सरकार के लिए भी ये केवल आय भर का जरिया नहीं बल्कि संस्कृति और विरासत से जुड़ा एक प्रतीक है। साथ ही साथ युद्ध की विभीषिका से जूझ रहे विश्व को भारत के खुशबूदार संस्कृति का खुशबूदार उपहार।