समाज और सिनेमा के बीच है गहरा नाता

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समाज और सिनेमा के बीच है गहरा नाता

समाज में जो भी घटित हो रहा होता है उस पर ही आधारित फिल्म बनती है. इसी कड़ी में दिल्ली की सीमाओं पर किसान इतने दिनों से आंदोलित हैं. मुझे लगता है कि कोई न कोई कहीं न कहीं इस विषय पर फिल्म बनाने के बारे में जरूर सोच रहा होगा. दरअसल, समाज में जो कुछ भी घटित होता है, उससे हमारा सिनेमा प्रेरित होता है. फिर वे व्यक्तिगत धोखा देने वाली घटनाएं हों या फिर मुंबई के बम धमाके.

वहीं कुख्यात नानावती केस जिसमें एक नौसेना अधिकारी अपनी पत्नी और उसके प्रेमी की हत्या कर देता है, इस पर ‘ये रास्ते हैं प्यार के’ फिल्म बनी. मुंबई के बम धमाकों पर ‘ब्लैक फ्राइडे’ या ‘मुंबई मेरी जान’ फिल्में बनीं. जबकि कई कहानियां प्रेरणास्पद बनाई गई. 

जीवित जाने-पहचाने लोगोें पर जो भी फिल्में बनीं, वे अक्सर विवादों का शिकार हो गईं, फिर वह फूलन देवी पर शेखर कपूर की फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ हो या फिर जामनगर की डॉन संतोखबेन जाडेजा पर बनी विनय शुक्ला की फिल्म ‘गॉडमदर’.

नूतन ने अपने कॅरिअर की शुुरुआत ‘सोने की चिड़िया’ फिल्म से की थी जिसमें कमाने वाले सदस्य का परिवार के लोग ही शोषण करते हैं. गुरुदत्त की ‘कागज के फूल’ फिल्म एक शादीशुदा फिल्ममेकर की कहानी है जो अपनी प्रतिभा पर स्वयं ही मोहित है. सच्ची कथाओं पर आधारित दोनों ही फिल्में बॉक्स ऑफिस पर कमाल नहीं दिखा सकीं और शायद इसलिए कि दोनों का अंत त्रासदी के साथ होता है.