नया साल मनाने यहाँ उतर आते हैं देवता

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Ranso Dance, Uttarakhand

उत्तराखंड का सीमांत जिला है उत्तरकाशी, चीन की सीमा से लगता हुआ, गंगा और यमुना जैसी महान और बड़ी नदियां यहीं से निकलती हैं। ऊँची पहाड़ियां, तीखे मोड़, सर्पीले रास्ते, गहरी घाटियां, तेज़ हवा और पहाड़ की चोटियों पर मखमली घास के मैदान (बुग्याल) कुल मिलाकर एक ऐसा शानदार इलाका की जिसे बनाकर भगवान खुद ही खुद से कह रहे होंगे "ये कौन चित्रकार है"।  जी हाँ अद्भुत है ये इलाका और इससे भी अद्भुत हैं यहाँ के लोग उनके रीती-रिवाज़ उनकी संस्कृति।

                                                                             चैत्र के महीने में जब प्रकृति पतझड़ और सर्दी की अलसाई भोर से निकलकर अंगड़ाई ले रही होती है तब इस इलाके की आबोहवा और खूबसूरती सातवें आसमान से भी ऊपर कोई आसमां हो तो उसे भी मात देने वाली होती है। फागुन की होली के रंगों और बसंत पंचमी के चटख पीले रंगों से सराबोर यहाँ के बुग्याल, यहाँ के पहाड़ चैत्र आते ही ऐसा वातावरण बनाते हैं की आपको हर तरफ जैसे देवता ही नृत्य करते नज़र आते हैं। इसी ख़ूबसूरती का आस्वादन करने के लिए यहाँ के एक प्रसिद्ध लोकगायक गाते हैं कि "मेरा पहाड़ अगर देखना हो तो, बसंत ऋतु में आना"।

                                                                               सुर्ख लाल  बुरांशों से लकदक जंगलों कि छटा देखने वाली होती है। इन्हीं दिनों में यहाँ लोग मनाते हैं "फूलदेई" कि देहरी-देहरी जाकर फूल हर देहरी पर रख आते हैं नन्हें-नन्हें नौनिहाल। और इसी के साथ नववर्ष के स्वागत में यहाँ के हर गांव में धूम होती है एक लोकनृत्य की जिसे लोक भाषा में "रांसों" कहते हैं। अपने आप में एक अलग मौलिकता पिरोये यह नृत्य नव पल्ल्वों के स्वागत में मनुष्यों के हर्षोल्लास का अप्रतिम उदाहरण है। देव डोलियों के साथ नृत्य करते हुए नर-नारी समूहों का उत्साह देखते ही बनता है, और उनकी ही तरह नृत्य करने कि कोशिश करते बालसमूहों का आनंद देखकर स्वयं देवता भी अभिभूत हो जाएं। दो पंक्तियों में एक दूसरे का हाथ थामे अर्द्ध-चंद्राकार श्रृंखला बनाते हुए जिसमे पुरुष बाहरी पंक्ति और महिलाएं अंदर कि पंक्ति बनाती हैं, आरोही ताल के साथ चार कदम आगे बढ़ते हैं और फिर अवरोही ताल के साथ झूमते हुए दो कदम पीछे आते हैं। ढोल और दमाऊ कि थापों पर नृत्य करती डोलियों के साथ मानवसमूहों के ये नृत्य ऐसी छटा बिखेरते हैं कि आदिगुरु शंकराचार्य का अद्वैत दर्शन बरबस ही याद आ जाता है, "अहम् ब्रहास्मि, तत् त्वम् असि"।  प्रकृति परिवर्तन के स्वागत का ऐसा उद्दाहरण विश्व में कदाचित ही कहीं और मिले। उत्तराखंड के इन सुदूर क्षेत्रों कि यह संस्कृति और परम्परा पारम्परिक वैदिक अद्वैत दर्शन के व्यावहारिक पक्ष को भी प्रकट करती है। देव-डोलियों के साथ ढोल कि थापों में मग्न होकर प्रकृति के रंगों और छटाओं के स्वागत में मानवसमूह ऐसे एकाकार हो जाते हैं जैसे कह रहे हों "अहम् ब्रहास्मि, तत् त्वम् असि"।