बदहाल सड़कें, बहता उत्तराखंड।

रानीपोखरी में बीच से टूटा पुल।
21 साल पहले एक जनांदोलन कर पहाड़ियों के लिए अलग प्रान्त के नाम पर उत्तरप्रदेश के गढ़वाल और कुमाऊं हिस्से के साथ हरिद्वार व ऊधमसिंह नगर को जोड़ कर एक नया राज्य बनाया गया, पहले उत्तराँचल नाम दिया गया और फिर बदल कर उत्तराखण्ड कर दिया गया। इस नाम बदलने का उतना ही फायदा हुआ, जितना कि जमी हुई बर्फ को वापस फ्रिज में रखने पर होता है, अर्थात शून्य। पहाड़ी राज्यों चाहे वो कोई भी हो, की एक मूलभूत समस्या होती है वहां की सड़कें, वैसे तो सड़कें और उनमे गढ्ढे आज़ादी के बाद से पूरे ही देश का रोना रहे हैं, मगर पहाड़ों की बात और भी इस मामले में अलग है कि वहाँ सड़क के अलावा कोई दूसरा संसाधन है ही नहीं। दुरूह कच्चे रस्ते हैं या संकरी पगडंडियां। ऐसे में पहाड़वाद के नाम पर कोई प्रान्त बने और 21 साल बाद भी सड़कों की हालत बद से भी बदतर हो तो प्रश्न पूछे जाने चाहिए। मगर कोई सुनने वाला भी तो हो।
ताज़ा घटनाक्रम में दो तस्वीरें हैं एक तो देहरादून के नजदीक रानीपोखरी की है जहाँ एक पुल पूरा का पूरा बीच से टूटकर बह गया और दूसरी तस्वीर है उत्तरकाशी जिले के चिन्यालीसौड़ से ऋषिकेश जाने वाली सड़क की जहाँ पूरी सड़क ही बह गयी। गौर करने वाली बात ये है कि ये दोनों ही कार्य हमारे माननीय प्रधानमंत्री की बहुप्रतीक्षित "ऑल वेदर रोड" का हिस्सा हैं। अगर ऑल वेदर रोड ऐसी होगी तो बाकी सड़कों का हाल समझ ही सकते हैं। इसके अलावा एक तीसरी तस्वीर भी है जो इन दोनों से कहीं भयानक और डरावनी है, और वो तस्वीर है, इन्हीं दुरूह और बहती सड़कों के कारण समय से अस्पताल न पहुंच सकने वाले मरीजों की और गर्भवती स्त्रियों की जिनमें से ज्यादातर अकाल मृत्यु का ग्रास बन जाते हैं। किस अपराध की सजा दे रही है सरकार इन उत्तराखण्ड के निवासियों को? क्या पहाड़ में रहना और जन्म लेना अपराध है? और पहाड़ के नाम पर राज्य की सत्ता पर काबिज जो लोग देहरादून में ऐश फरमा रहे हैं, उनका क्या?
ऐसे हालात केवल उत्तराखण्ड के नहीं लगभग देश के हर हिस्से में हैं, क्यों जनप्रतिनिधि बनकर सत्ता की मलाई खाने वाले लोग जनता के प्रति जिम्मेदारी नहीं दिखाते। या फिर सत्ता केवल ऐशोआराम के लिए है, तो क्यों चुनाव के समय में वादों के सब्जबाग दिखाकर जनता को बहलाकर वोट ले जाते हैं। इसके आगे जिम्मेदारी जनता की है जिन्हें मतदान करना है।